मनीष चतुर्वेदी ‘‘मनु’’ की कलम से।
भारत भूमि में लोकतांत्रिक महाभारत 2024 की रणभेरी बज चुकी है। हर राजनैतिक दल अपनी अपनी सांगठनिक शक्ति और सामर्थ्य के साथ चुनावी रण में उतरने को तैयार है और कुछ उतर भी चुके हैं। ऐसे में वर्ष 2024 भारतवर्ष के लिए ही नहीं पूरे विश्व के लिए बेहद अहम है।
द्वापर युग के महाभारत में 100 बनाम 5 के बीच युद्ध छिड़ा था तो आज कलियुग के महाभारत में ये युद्ध 1 बनाम अनेक के बीच होता नजर आ रहा है।
स्पष्ट है कि सत्ताधारी दल के पास चुनावी रण को पार करने के लिए एक मात्र चेहरा है जिसका नाम है नरेन्द्र मोदी वहीं विपक्षी दल अपनी पहचान को पीछे छोड़ एक नयी पहचान के सहारे चुनावी मैदान में उतरना चाहते हैं और वो नई पहचान है इंडी गठबन्धन।
इंडी गठबन्धन के नाम के साथ विपक्षी दल एकजुट होकर चुनावी रण में उतरने को तैयार हैं लेकिन इसे अब विपक्ष की रणनीतिक असफलता कहें या फिर मजबूरी का गठजोड़, कि इंडी गठबंधन में शामिल हर राजनैतिक दल सीटों का बंटवारा अपने ही मन के अनुरुप चाहता है। सभी दलों की चाहतें बड़ी हैं लेकिन कद वह स्वयं जानते हैं बाबजूद इसके कोई राजनैतिक दल खुद को छोटा दिखाना नहीं चाहता।
वहीं दूसरी ओर गठबन्धन में जो बड़े दल हैं अर्थात राष्टीय पार्टी के रुप में स्थापित हैं वह भी गठबन्धन धर्म को निभाते समय अपने कद और चाहत से कोई समझौता करना नहीं चाहते, कांग्रेस पार्टी इसका जीता जागता उदाहरण है।
कभी देश पर एकतरफा राज करने वाली एक मात्र राष्टीय पार्टी कांग्रेस को आज क्षेत्रिय दल आंखें दिखा रहे हैं तो वहीं कांग्रेस भी अपने राजसी लिवास से बाहर आने को तैयार नहीं। दूसरे शब्दों में यदि ये कहा जाये कि इंडी गठबन्धन के संयोजक भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष खरगे हैं लेकिन कड़वा सच ये है कि गठबंधन के किसी भी दल को कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार नहीं।
और हो भी क्यों ?
क्योंकि जो पार्टी अपने युवराज को गठबन्धन का चुनावी चेहरा बनाना चाहती है वह युवराज गठबन्धन धर्म निभाने और उसकी रणनीति तैयार करने के बजाय देश में यात्रा निकाल रहा है,
अपने अनरगल बयानों से न सिर्फ कांग्रेस के लिए बल्कि गठबन्धन के लिए हर कदम पर एक नया गड्ढा खोदने में लगा है।
जिसका ताजा तरीन उदाहरण बनारस में युवराज का दिया गया बयान है जिसमें उन्होंने बनारस के युवाओं को ही नशेड़ी बता दिया।
यानि कि कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना वाली कहावत को चरितार्थ करने में युवराज कुछ इस तरह से भ्रमित हो गये कि अपने ही कमान से छोड़ा गया तीर खुद पर ही ले लिया जिसका दर्द युवराज को भले ही न हुआ हो लेकिन उनसे जुड़े राजनैतिक दलों की छटपटाहट उनकी राजनैतिक आसन में घुसे इस तीर का दर्द स्पष्ट बयान कर रहे हैं।
शायद यही कारण है कि कई राजनैतिक दल तो गठबन्धन से तलाक ले हलाला करने को मजबूर हैं या फिर ये कहें कि कर चुके हैं।
इतना सब कुछ होने के बाबजूद कमाल की बात तो ये है कि इंडी गठबंधन में शामिल राजनैतिक दल चुनावी चक्रव्यू हके द्वार पर खड़े हैं लेकिन विपक्षी सेना को अभी तक ये भी नहीं पता कि उनका सेनापति कौन होगा।
विपक्षी खेमे में इतनी भर अनिश्चितता ही होती तो भी ठीक था लेकिन इसके दुष्परिणाम भी चुनावी रण में उतरने से पहले ही दिखने को मिल रहे हैं। हर दिन विपक्षी खेमे की सेना का एक टुकड़ा टूटकर या तो अलग हो रहा है या फिर सत्ताधारी सेना के नेतृत्व को स्वीकार कर उसमें शामिल हो रहा है।
उदाहरण के तौर पर फिलहाल बात चाहे सुशासन बाबू नितिश कुमार की हो या फिर चौधरी साहब के युवराज जयंत चौधरी की, दोनों ने ही समय रहते अपने राजनैतिक भविष्य के हित में फैसला लेते हुए अपनी अपनी पाली बदल ली है।
निश्चिततौर पर इस तरह के घटनाएं विपक्षी गठबन्धन के लिए बेहद ही चिंताजनक तो है ही उसे कमजोर करने वाली भी है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो लगता है कि चुनावी रण में सत्तापक्ष द्वारा रचित चक्रव्यूह को तोड़ना तो दूर की बात उसमें प्रवेश करने से पहले ही विपक्षी सेना बिखर जाएगी ओर सत्ता पक्ष का सिंहासन पर दावा एकतरफा हो जायेगा, ऐसा मेरा मानना है।
हालांकि परिणाम की स्क्रिप्ट को पढ़ना इतना भी मुश्किल नहीं है बाबजूद इसके यह कहना भी गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र की इस महाभारत का परिणाम क्या होगा ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।