सीधे सवाल सरकार से………मनीष चतुर्वेदी ‘‘मनु’’ की कलम से।
आन्दोलन के माध्यम से किसानों द्वारा उठायी जा रही अनैतिक मांगों को लेकर सरकार की गंभीरता और सहयोगात्मक रवैये को देखकर तो अब लगने लगा है कि इस देश में शहरी व्यक्ति को जीने का कोई अधिकार ही नहीं है।
सरकार कोई भी क्यों न हो लेकिन उनकी वित्तीय नीतियों को देखकर कहा जा सकता है कि सरकार के लिए शहरी व्यक्ति महज़ एक दुधारु गाय है जो सिर्फ टैक्स देने, ब्याज देने और कोलू के बैल की तरह पिलकर अपनी सरकार को मालामाल करने के लिए पैदा हुआ है क्योंकि शायद देश की असली संतान और देश के संसाधनों पर तो सिर्फ किसान रुपी इंसानों का ही अधिकार है।
गौर करने वाली बात है कि किसान आंदोलन के नाम पर जिस तरह की मांगें पंजाब के किसानों ने रखी हैं और सरकार उनके सामने घुटने टेककर वार्ता के लिए मनुहार कर रही है उसे देखकर तो लगता है कि देश की शहरी जनता को तो जीने का कोई अधिकार है ही नहीं।
अब शहरी जनता के दर्द को यदि शब्दों में पिरोया जाये तो कुछ सवाल हैं जो कि आज हर शहरी के जह़न में उठने लगी हैं और ये कि :-
किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी लेकिन शहरी व्यक्ति के व्यापारी के लिए कोई न्यूनतम आय की गारंटी नहीं, आखिर क्यों ?
यदि किसान को घाटा हो तो सरकार उसे पूरा करती है लेकिन यदि शहरी व्यापारी को घाटा हो तो उसे अपना घर, दुकान और मकान बेचकर अपने घाटे की भरपाई करनी पड़ती है, आखिर क्यों ?
यदि किसान की फसल खराब हो जाए तो सरकार उसे मुआवजा देती है लेकिन यदि शहरी व्यक्ति को व्यापार में घाटा हो तो सरकार को कोई सरोकार नहीं, आखिर क्यों ?
किसानों को बिना ब्याज अथवा न्यूनतम ब्याज पर ऋण मिलता है लेकिन शहरी जनता को व्यापार के लिए ऋण मंहगी ब्याज दर पर, आखिर क्यों ?
किसानों को फ्री में किसान कार्ड मिलता है लेकिन शहरी व्यक्ति क्रेडिट कार्ड पर भी सालाना फीस दे, आखिर क्यों ?
वोट की खातिर समय समय पर किसानों के सरकारी कर्ज अर्थात ऋण को माफ कर दिया जाता है लेकिन यदि शहरी व्यक्ति बैंक का कर्ज न चुका पाए तो भारी ब्याज या फिर जेल मिलती है, आखिर क्यों ?
यदि किसान ट्रैक्टर या कृषि उपकरण खरीदे तो टैक्स तो दूर की बात सरकार किसान को सब्सिडी देती है लेकिन शहरी व्यक्ति कार और व्यापार से संबधित उपकरण खरीदे तो शहरी नागरिकों को 12 से 18 प्रतिशत जीएसटी टैक्स चुकाना पड़ता है, आखिर क्यों ?
किसान ट्रैक्टर लेकर टोल प्लाजा से गुजरे तो निःशुल्क लेकिन शहरी व्यक्ति टोल प्लाजा से गुजरे तो टोल टैक्स भरे, आखिर क्यों ?
यदि किसान ट्रैक्टर का कामर्शियल इस्तेमाल करे तो कोई कार्यवाही नहीं लेकिन शहरी व्यक्ति यदि प्राईवेट कार को टैक्सी के रुप में इस्तेमाल करे जो जुर्माना भरे, आखिर क्यों ?
ग्रामीण क्षेत्र में पानी शौचालय निःशुल्क लेकिन एक शहरी व्यक्ति अपने घर में पानी और शौचालय पर भी टैक्स दे, आखिर क्यों ?
ग्रामीण क्षेत्र में मकान बनाया जाये तो कोई प्रक्रिया नहीं कोई टैक्स नहीं लेकिन शहरी क्षेत्र में कोई अपना घर बनाए तो उस पर भी दुनियाभर की प्रक्रिया और टैक्स, आखिर क्यों ?
आखिर ये कैसी व्यवस्था है सरकार की ?
इन तमाम सवालों को उठाने के पीछे की मंशा किसानों अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोगों का विरोध नहीं है और न ही शहरी जनता को किसी भी तरह से उकसाना है।
मेरा मानना है कि एक आम भारतीय होने के नाते किसानों अथवा ग्रामीण अंचल में रहने वाले लोगों को उनका जो भी हक है वो अवश्य मिलना चाहिए लेकिन सरकार को यह भी तय करना होगा कि एक शहरी नागरिक के भी कुछ लोकतांत्रिक अधिकार हैं जो शहरी नागरिक को भी मिलने चाहिए।
एक देश एक विधान की बात कहने वाली सरकार को सोचना होगा कि यदि ग्रामीण जनता के प्रति उसकी जिम्मेदारी हैं तो शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी इसी भारत देश के नागरिक हैं उनकी जिम्मेदारी भी सरकार को लेनी होगी।
देश के दो परिवेश ग्रामीण और शहरी किसी भी राष्ट्र की दो आंख, दो पैर या दो बाजुओं की तरह होते हैं यदि इनमें से एक भी काम करना बन्द कर दे या फिर सारा बोझ यदि एक ही अंग पर डाला जाएगा तो उसका दुष्परिणाम भी निश्चित ही सरकार रुपी शरीर और राष्ट्र को ही भोगना पड़ेगा।
यदि ऐसे ही चलता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि किसानों के इस तरह के आन्दोलन और उसके प्रति सरकारों का सकारात्मक रवैया कहीं शहरी जनता को भी सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर न कर दे।
कहीं ऐसा न हो कि भारत मां के दो बेटे ‘‘शहरी एवं ग्रामीण’’ टकराव की स्थिति में आ जाऐं क्योंकि दुर्भाग्य से ऐसा हुआ तो ऐसे हालात निश्चित ही बेहद डरावने हो सकते हैं और इसका सीधा असर राष्ट्र की एकता, अखण्डता, अस्मिता, आर्थिक व्यवस्था के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा पर पड़ेगा जो कि शायद ही देश का कोई भी नागरिक चाहेगा।
लिहाजा मेरा मानना है कि सरकार को गंभीरता के साथ अब इस दिशा में सोचने की आवश्यकता है।