मनीष चतुर्वेदी ‘‘मनु’’ की कलम से……..
जैसा कि मैंने पूर्व में ही कहा था कि नेहरु के बाद अब राहुल की ताजपोशी के लिए कांग्रेस एक बार फिर सन् 1947 के इतिहास को दोहराने के लिए बेताब है। संभवतः मेरी इस शंका का पहला प्रमाण बुद्धवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर देखने को मिलेगा।
निश्चिततौर पर ये कहना गलत नहीं होगा कि दिल्ली के जंतर-मंतर पर हाने वाला ये प्रदर्शन अलग देश की मांग की चेतावनी देने वाले कांग्रेसी सांसद डी.के. सुरेश की चेतावनी का ये मौन आगाज भर है जिसमें निशाना एक ही है लेकिन कमान किसी और के हाथ में है और तीर का शीर्षक कुछ और है जबकि वास्तविकता में लक्ष्य एक ही है।
जिसका मौन समर्थन कोई और नहीं बल्कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार अपने इस प्रदर्शन के माध्यम से कर रही है जो कि स्पष्टतौर पर न सही किन्तु देश को बांटने के कुचक्र की चरणबद्ध तरीके की शुरुआत का संकेत देता है।
गौर करने वाली बात ये है कि जैसा कि मैंने पहले भी सवाल उठाया था कि कांग्रेसी सांसद डी.के. सुरेश की चेतावनी भरे इस बयान के बाद दिल्ली में बैठे कांग्रेस के आकाओं की चुप्पी नैतिकता की दृष्टि से निश्चिततौर पर चौंकाने वाली है लेकिन वहीं इसके विपरीत कांग्रेस की वर्तमान दिशा और दशा तो यही दर्शाती है कि कहीं न कहीं कांग्रेसी आकाओं के पास यही अंतिम हथियार है जिसके सहारे वह अपने युवराज को महाराज बनाने की हसरत को पूरा कर सकते हैं।
मेरा स्पष्टतौर पर मानना है कि यह प्रदर्शन कोई संयोग नहीं बल्कि एक प्रयोग है जिसकी नींव का पहला पत्थर कांग्रेसी सांसद डी.के. सुरेश ने रख दिया है और अब उस नींव में हर कांग्रेस शासित प्रदेश सरकारें अपने अपने पत्थर जोड़कर बंटवारे की दीवार को खड़ी करने में लग गये हैं।
संभवतः कांग्रेस को भी अब ये समझ आने लगा है कि मोदी नाम के राजनैतिक शिखर पर चढ़कर अपना महल बनाने का निष्फल प्रयास करने से अच्छा है कि उस पर्वत के साये से अलग अपनी ही एक छोटी सी कुटिया बना ली जाये तो कम से कम अपनी तो होगी।
वैसे भी बड़े-बुजुर्गों ने कहा है कि किराये के महल से अच्छी अपने स्वामित्व वाली झौंपड़ी भी सुकून भरी होती है। अब हो सकता है कि कांग्रेस की नीतियों से त्रस्त और सत्ता से वंचित दर्द से पीड़ित किसी बड़े-बुजुर्ग कांग्रेसी ने जामवन्त बनकर कांग्रेस के आकाओं को ये सलाह देते हुए कांग्रेस का देश को बांटने की उनकी 1947 वाली ताकत का अहसास करा दिया हो।
संभवतः कांग्रेस अब उसी पथ पर आगे बढ़ते हुए चरणबद्ध तरीके से अपनी दक्षिणी झौंपड़ी की जुगाड़ में लग गयी है।
अब ऐसे में स्वाभाविक है कि उसके भावी स्वामी अथवा शासक कांग्रेस के युवराज ही होंगे। लिहाजा मिशन ‘‘दक्षिणी झौंपड़ी’’ को लेकर कांग्रेस आकाओं ने अपने प्यादे बंटबारे की विसात पर सजा दिये हैं जिसकी पहली चाल कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार के द्वारा चली गयी है और जिसे शतरंज की भाषा में बल और सेना की भाषा में कवर फायर देने के लिए केरल सरकार को लगा दिया गया है।
आपको याद दिला दूं कि ये वही केरल प्रदेश है जो कि कांग्रेस के युवराज की आश्रय स्थली है जिसके सहारे युवराज को संसद में पहुंचने का प्रवेश-पत्र मिल सका था अन्यथा ……….अमेठी की जनता ने तो उनके भाग्य का फैसला कर ही दिया था।
आपने रामायण में पढ़ा होगा कि किस तरह से वानर सेना में बतौर इंजीनियर नल और नील के द्वारा रामसेतु के निर्माण का आगाज किया था और फिर वानर सेना ने एक-एक पत्थर जोड़कर रामसेतु का निर्माण कर दिया जिस पर चलकर प्रभु श्रीराम ने लंका में जाकर विजय पताका फहरायी थी।
कमोवेश हमेशा से श्रीराम का विरोध करने वाली कांग्रेस श्रीराम के ही पथ पर चलने का प्रयास कर रही है किन्तु वह यह भूल रहे हैं कि मारीच, कालनेमि बनकर या अहिरावण बनकर श्री राम या रामभक्त हनुमान को कुछ समय के लिए कथित तौर पर भ्रमित भले ही किया जा सकता हो लेकिन अंततः अंत वही होता है जो कि इच्छा वेशधारी अहिरावण, कालनेमि ओर मारीच का हुआ था।
अब ये बात अलग है कि फिलहाल कांग्रेस के नल और नील अर्थात कर्नाटक और केरल ने विरोध प्रदर्शन के रुप में अपनी भूमिका निभाना शुरु कर दिया है।
अब आगे क्या होगा वह चरणबद्ध तरीके से देश की जनता के सामने आ ही जायेगा लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस की भविष्य की रणनीति को लेकर मेरी जो शंका थी वह इस प्रदर्शन के बाद और बलबती होती जा रही है।
अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि हे ईश्वर राजनैतिक दल कोई भी हो सबको सद्बुद्धि देना ताकि देश को पुनः बंटबारे जैसे दंश को न झेलना पड़े।
हालांकि सच भी यही है कि देश में यदि कुशल और इच्छाशक्ति से परिपूर्ण नेतृत्व रहा तो भारत मां को बंटवारे का ये दंश पुनः स्वप्न में भी नहीं झेलना पड़ेगा और अखंड भारत व विश्वगुरु भारत बनने का सपना अवश्य साकार होगा।
………वन्दे मातरम्