स्वरचित पटकथा के नायक से खलनायक बने केजरीवाल।
मनीष चतुर्वेदी ‘‘मनु’’ की कलम से……….
5 अप्रैल 2011 के दिन बरगद के पेड़ रुपी समाजसेवी अन्ना हजारे के सानिध्य में जन लोकपाल विधेयक (नागरिक लोकपाल विधेयक) से शुरु हुआ भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की मिट्टी से जन्मे केजरीवाल नाम का राजनेता अपनी ही पटकथा का खलनायक बन जायेगा ये शायद किसी ने भी सोचा न था।
कुर्सी की महिमा को भली भांति पहचानने का दावा करने वाले केजरीवाल उसी कुर्सी के प्रभाव में राजमद में चूर होते चले गये, संभवतः केजरीवाल को स्वयं ही इसका भान नहीं हो सका जिसके कारण कल तक लोगों को भ्रष्टाचारी कहकर सीना चौड़ाने वाले केजरीवाल को सूरज ढलने के बाद न्याय के मन्दिर अर्थात अदालतों की दहलीज पर गुहार लगानी पड़ रही है।
कल के नायक का आज से जो नाता जुड़ा है निश्चिततौर पर वह दिल्लीवासियों के लिए फिलहाल चिंता का विषय अवश्य होगा।
अब ये चिंता दिल्लीवासियों के दिलों में अपने मसीहा पर लगे भष्टाचार के आरोपों और उसके परिणामों को लेकर होगी या इस बात की होगी की अब दिल्ली का क्या होगा ?
या फिर दिल्ली की जनता के लिए चिंता का विषय ये होगा कि फ्री बिजली-पानी के लालच में कहीं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली !
चिंता जिस विषय को लेकर भी हो लेकिन ये तो तय है कि दिल्ली की जनता आज राजनैतिक भंवरजाल में फंसे मोहरे की तरह हो चुकी है जिसे स्वयं समझ नहीं आ रहा होगा कि आखिर ये क्या हुआ और आगे क्या होगा ?
दिल्ली की जनता के लिए इन सवालों का उत्तर ढूंढ़ना कोई रॉकेट साइंस नहीं है लेकिन इसे दिल्ली के लोगों को फ्लैश बैक में जाना होगा जहां आन्दोलन की मिट्टी से अरविन्द केजरीवाल जैसे समाजसेवी का जन्म हुआ था ।
आन्दोलन की इस मिट्टी को अपने माथे से लगाए इस समाजसेवी ने राजनीति में न जाने की कसम खाते हुए एक समाजसेवी बनकर व्यवस्था परिवर्तन का नायक बनने की हुंकार भरी थी और प्रण लिया था कि वह कभी राजनीति की गंदी कीचड़ में नहीं उतरेंगे बल्कि जनता के बीच एक समाजसेवी के तौर पर जनता के नायक बनकर रहेंगे।
संभवतः उनका यही अन्दाज और ईमानदारी देश के युवा खासकर दिल्ली के युवाओं के साथ-साथ कुछ बड़ी शख्सियतों के दिल में बैठ गया और उन्होंने अरविन्द केजरीवाल को अपना नायक मानते हुए खुद को केजरीवाल के प्रति समर्पित कर दिया वो भी पूरे विश्वास के साथ।
अब देखते ही देखते यही समाजसेवी, समाजसेवी से नेता कब बन गये ये दिल्ली वालों को पता ही नहीं चल सका और इस तरह से राजनीति के खेत में एक और नयी किस्म की राजनीति की फसल पकने लगी l लेकिन जब उसे काटा गया तो राजनीति की मण्डी में एक और नयी फसल की ढेरी दिखने लगी जिसका नाम था केजरीवाल सरकार और उस फसल के मालिक थे AAP।
आप अर्थात आम आदमी पार्टी उर्फ आम आदमी।
दिल्ली के दरियादिल लोगों ने इस राजनीति की चादर से ढकी समाजसेवा की इस मज़ार को भी एक मन्दिर की तरह पूजा।
परिणामस्वरुप अरविन्द केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी बिठा दिया। चारों ओर हर्षोल्लास का माहौल था, दिल्ली के हर नौजवान को लगने लगा कि अब वह भी दिल्ली का मुख्यमंत्री बन गया है।
लेकिन अफसोस, इस खुशी में सराबोर वह अपने इस नायक के उस बयान को नजरअन्दाज कर गये जिसने प्रारम्भ में ही इस कुर्सी को कोसा था ओर कहा था कि इस कुर्सी में जादू है जी, जो भी इस पर बैठ जाता है भ्रष्ट हो जाता है इसलिए मैं इस कुर्सी पर कभी नहीं बैंठूंगा।
लेकिन अब जब आप उस कुर्सी पर बैठ ही गए तो भला इस जादू से बच पाना कैसे संभव था।
शनैः-शनैः कुर्सी के जादू का असर भी दिखने लगा और ऐसा दिखा कि कल तक खिड़की से जीत की खुशी में हाथ हिलाकर जनता का अभिवादन करने वाला विश्वास भी डगमगाने लगा और अंततः विश्वास भी अविश्वास के साथ अपने हिले हुए आत्मविश्वास के साथ अपने यथार्त अर्थात अपने पुराने मंचों पर लौट गया।
आप के संस्थापक सदस्य योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, शाजिया इल्मी, पत्रकार आशुतोष, पत्रकार आशीष खेतान, पूर्व विधायक विनोद बिन्नी और पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा ये वो नाम हैं जिनके विश्वास ने भी समय के साथ दम तोड़ दिया जिसके चलते या तो खुद आमआदमी पार्टी से बाहर हो गये या उन्हें निकाल दिया गया।
इन तमाम नेताओं को पार्टी से दूर हो जाना इस बात को तो प्रमाणित करने लगा कि कुर्सी में जादू तो है जिसके चलते उस पर बैठे केजरीवाल ने एक एक करके अपने रास्ते के कांटों को हटाना शुरु कर दिया और देखते ही देखते राजनीति के साथ-साथ एक और नीति का निर्माण किया जिसे राजनीति की दुनिया ने यू-टर्न नीति का नाम दिया।
अब यू-टर्न नीति का जनक ही यू-टर्न लेने में माहिर न हों भला ये संभव कैसे हो सकता है ? ये कहना मेरा नहीं बल्कि इसका प्रमाण तो अरविन्द केजरीवाल स्वयं समय-समय पर देते रहे हैं वो भी चरणबद्ध तरीके से।
उदाहरण के तौर पर पहले केजरीवाल और उनके विधायकों/मंत्रियों ने सरकारी गाड़ी में कार्यालय जाना शुरु किया।
सरकारी बंगले में राजनीति की खिचड़ी पकाना शुरु किया।
समय के साथ विधायक और मुख्यमंत्री की वेतन वृद्धि भी की।
परंपरागत राजनैतिक दुश्मन कांग्रेस के साथ गठबंधन किया।
विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचारी होने के आरोप लगाये फिर उसी के लिए माफी मांगी।
युवाओं का साथ लिया और युवाओं को शराबी बनाने के लिए दुधारु शराब नीति बनायी जिसके तहत शराब की होम डिलीवरी करायी, वो भी एक के साथ एक बिल्कुल फ्री।
इतना ही नहीं सरकारी बंगला छोटा पड़ा तो उसे महल में तब्दील कराया।
पार्टी के शीर्ष नेता जेल जाते रहे फिर भी ईमानदारी का नगाड़ा बजता रहा।
सरकार का उपमुख्यमंत्री जेल गया लेकिन फिर भी ईमानदारी की शहनाई बजती रही।
और अब हाल ही में देश के सज़ा प्राप्त भ्रष्टाचारी नेता के साथ गठबन्धन किया।
अपने सैद्धान्तिक राजनैतिक दुश्मनों के साथ इंडी गठबन्धन में एक ही मंच पर हाथों में हाथ डालकर मंच साझा किया।
और तो और गिरफ्तारी के बाद भी वन्दे ने यू-टर्न लेना नहीं छोड़ा और रात के अन्धेरे में सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंचने के बाद सूर्योदय होते ही अपनी याचिका वापस लेकर एक और यू-टर्न ले डाला।
कुल मिलाकर यू-टर्न की फैहरिस्त कितनी भी लंबी क्यों न हो जाए लेकिन कमाल की है दिल्ली की जनता,
सच में बेहद बड़े दिल वाली है जिसके लिए केजरीवाल आज भी एक समाजसेवी है न कि कोई राजनेता।
और अगर मेरा ये अनुमान गलत है तो वह भी आने वाले समय में पता चल ही जायेगा।
फिलहाल तो सच ये है कि अपने गुरु के कन्धे पर पैर रखते हुए सिद्धान्तों की बलि चढ़ाकर सत्ता के शीर्ष पर कैसे चढ़ा जा सकता है ये कोई अरविन्द केजरीवाल से सीखे।
इतना ही नहीं अपनी ही लिखी हुइ पटकथा में नायक से खलनायक बनना भी कोई केजरीवाल से ही सीखे।
अब केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद उनके इस राजमद की पटकथा का क्या अंजाम होगा, वर्ष 2024 की होली केजरीवाल अपनी दिल्ली की जनता के साथ मनाऐंगे या फिर जेल में विराजमान उपमुख्यमंत्री समेत अन्य मंत्रियों के साथ ! ये तो अब आने वाला वक्त ही बताएगा।
………..वन्दे मातरम्